संसार का सबसे महान कष्ट "दुःख"
संसार में रात अच्छी होती है, कि दिन, पता नहीं लेकिन चारों ओर दु:खों की गोधूली बेला बिखरी हो तो दिन ही अच्छा लगता है क्योंकि दिन में कोई ना कोई तो खरी खोटी सुनाने आ ही जाता है जबकि कमबख्त रात में तो नींद भी दु:ख को हरने के लिए नहीं आती। संध्या तो सबसे बची रहती है क्योंकि संध्या के पास न तो खोने के लिए दिन है और ना ही बचाने के लिए रात, तो बेचारी करें भी तो क्या? संसार तो दिन में पैसा रात में कल की चिंता लिए परेशान है। दु:ख भी उसी एक निर्गुण रूप में सहायक है। बेचारा दुख भी क्या करें, सुख का एहसास दिलाने को अपने कुछ चक्की में चने के घुन के जैसे पटक रहा है, जबकि दोष इस सुख का ही है जो सबसे लुकाछिपी पानी के शरबत में शक्कर की तरह खेल रहा है और दुख को बदनाम कर रहा है। संसार भी पूर्णिमा की उजियारी को खूब मस्ती करता है और जैसे अमावस्या की काली रात आती है तब फिर पूर्णिमा की तारीफ करता है और अमावस्या अच्छा प्रभाव डाले इस फिराक में ईश्वर का ध्यान करता है और ईश्वर भी कहता अगर दु:ख न आता तो संसार को मैं भी याद ना आता तो अच्छा है कि संसार को मेरे नाम